॥ पिप्पलाद का पालन॥

अथर्वा पुत्र महर्षि दधीचि द्वारा विश्व कल्याण एवं देश धर्म की रक्षा हेतु दैत्यराज वृत्तासुर के वध के लिए अपनी अस्थियाँ प्रदान कर देने के बाद दधीचि पत्नी देववती, जो कि गर्भवती थी, सती होने को तत्पर हुई। तब देवताओं ने ऋषि पत्नी को रमरण कराया कि आप के गर्भ में जो ऋषि का तेज विद्यमान है, वह रुद्रावतार है। पहले आप उसे उत्पन्न करें। इस पर ऋषि पत्नी ने शल्य क्रिया द्वारा अपना गर्भ निकालक आश्रम में ऋषि द्वारा स्थापित अश्वथ वृक्ष (पीपल का पेड़) को सोंपते हुए गर्भस्थ बालक की रक्षा की। भगवती दधीमथी से प्रार्थना की कि आप ही हमारी कुल देवी हैं। कुलदेवी दधिमथी के सानिध्य में पीपल वृक्ष के निचे पलने के कारण महर्षि दधीचि के पुत्र का नाम पिप्पलाद हुआ। बह्माण्ड पुराण के विश्वोत्पति प्रकरण में निन्म श्लोक द्वारा इसकी पुष्टि की गई है।

दधीचि ऋषि : संक्षिप्त जीवन परिचय

प्रिय दाधीच बंधुओं! आज वक्त आ गया है कि हम अपने पूर्वजों के बारे में जानकारी प्राप्त करें।हालांकि कुछ बुजुर्ग इसका ज्ञान रखते हैं परंतु नवयुवकों एवं जिनको ज्ञान नहीं है उन्हें जानकारी होना अत्यंत जरूरी है। वेदों के अनुसार कमल से ब्रह्माजी की उत्पति हुई एवं उनसे अथर्वा ऋषि का जन्म हुआ जिन्होंने अथर्ववेद की रचना की।अथर्वा ऋषि एवं उनकी पत्नी शान्ता ने मां दधिमथी के नवरात्रे बहुत ही विधि-विधान से करके मां को प्रसन्न किया और वरदान में पुत्र प्राप्ति की। इस अवसर पर सभी देवताओं ने प्रसन्न होकर पुष्प वर्षा की। ब्रह्माजी ने कहा कि यह बालक ईश्वर का अंश, देवी का कृपापात्र और दानी है। यह दधि की पूजा करने वाला है इसलिए इसका नाम दधीचि होगा।

भगवान ब्रह्माजी ने बालक को विशिष्ट दिव्य यज्ञोपवीत धारण करवाकर आशीर्वाद दिया कि आप अभी से तरूण हो जाओ। इसके साथ ही चारों वेदों का ज्ञानदेकर ब्रह्माजी देवलोक को चले गए। महर्षि दधीचि ने भगवान शिव की कठिन तपस्या की जिससे प्रसन्न होकर शिवजी ने वरदान दिया कि इस संसार में कोई आपका दमन नहीं कर सकता एवं आप तृणबिंदु की कन्या देववती (सुवर्चा) से विवाह करिए। अपने आराध्य के आदेश की पालना करते हुए महर्षि दधीचि ने सुवर्चा के साथ विवाह किया। सुवर्चा मां दधिमथी की परम भक्त थीं। पति व पत्नी गाय व अतिथि दोनों की बहुत सेवा करते थे। कालांतर में वृत्रासुर नामक एक राक्षस से सभी देवता भयभीत एवं पराजित हुए। तब ब्रह्माजी ने इंद्र को बताया कि आप दधीचि ऋषि की अस्थियों का वज्र बनाकर इस राक्षस का वध करो। जब इंद्रादि सभी देवताओं ने महर्षि दधीचि के आश्रम में आकर उनसे अपनी अस्थियां देने की प्रार्थना की तब ऋषि ने कहा कि लोक-कल्याण हेतु मैं अपनी अस्थियां देने को तैयार हूं परंतु मेरी इच्छा है कि इस कार्य से पूर्व मैं सभी तीर्थों का स्नान करके आना चाहता हूं। इस पर इन्द्रादि देवताओं ने सोचा कि इस कार्य को पूर्ण करने में बहुत समय लग जाएगा। उन्होंने सभी तीर्थों (देवलोक, पाताललोक एवं मृत्युलोक) को अपना जल लेकर उपस्थित होने की प्रार्थना की। सभी तीथों ने देवताओं की आज्ञा की पालना की एवं उपस्थित हुए परंतु तीर्थराज प्रयाग ने आने से मना कर दिया।

जब देवताओं को इसकी सूचना लगी तो उन्होंने वहीं पच-प्रयाग की स्थापना की। सभी 36 हजार तीर्थों ने महर्षि दधीचि का अभिषेक किया और देवताओं ने पुष्पवर्षा की। इस अवसर पर भगवान विष्ण ने कहा महर्षि दधीचि! आपने लोक-कल्याण हेतु इतना बड़ा दान दिया है। कुछ वरदान मांगो। इस पर दधीचि ने कहा, हे देव! मैंने यह दान जनकल्याण के लिए दिया है इसलिए कोई भी वरदान मांगने की मेरी इच्छा नहीं है। भगवान विष्णु ने कहा कि विधि के अनुसार आपको कुछ  वरदान तो लेना ही होगा। तब दधीचि ने कहा, सभी तीर्थों का मिश्रित जल यहां उपलब्ध है और किसी भी प्राणी को इस जल को छू लेने मात्र से भी वही फल प्राप्त हो जो आज मुझे प्राप्त हुआ है। भगवान विष्णु ने कहा-तथास्तु!    अभिषेक के बाद महर्षि दधीचि के शरीर पर घी एवं नमक का लेपन किया गया और सुरभि नाम की गाय द्वारा शरीर को चटाया गया। गौमाता ने पूरा शरीर चाट लिया एवं अस्थियां बाहर आ गई लेकिन महर्षि दधीचि के प्राण शरीर में ही थे। वरदान देने के बाद दधीचि ऋषि के प्राण भगवान विष्णु ने अपने मुख द्वारा अपने अंदर समाहित कर लिए। इस प्रकार ब्रह्माजी का दिया हआ वरदान (ब्रह्माजी ने कहा था किये देव-अंश हैं) सच हुआ और अंत समय में महर्षि दधीचि देवो मे ही सम्मिलित हो गए एवं आज वहाँ दधीचि ऋषि की पूजा विष्णु भगवान के रुप में होती है।

जब अस्थिदान हुआ तब माता सुवर्चा पानी लेने गई हई थीं। आने पर उन्हे पूरे वृतांत का पता चला तो मां सुवर्चा ने सती होने की इच्छा प्रकट की। चूकि माता गर्भवती थीं इसलिए देवताओं ने इस कार्य के लिए उन्हे पर मना किया परंतु सती-हठ के कारण देवताओं को उनकी बात माननी पड़ी । माता ने शल्य-चिकित्सा द्वारा गर्भ को बाहर निकालकर पीपल के पेड़ के नीचे पत्ते पर लेटाकर पीपल की ही एक टहनी बालक के मुंह में दे दी।

उन्होंने माता दधिमथी को बालक की जिम्मेदारी सौंपी। इस प्रकार गोठ-मांगलोद हमारी बुआ-दादी का घर हुआ जिसे हम खूब मानते हैं और मिश्रित हमारे पिताजी का घर हुआ जिसका हमें अभी तक पूर्णतया ज्ञान नहीं है। यह स्थान महर्षि दधीचि की तपोभूमि एवं पिप्पलाद मुनि का जन्म स्थान है। मूल पीपल का वृक्ष तो पुराना होकर टूटकर गिर गया है लेकिन उसी स्थान पर दूसरा वृक्ष आज भी विद्यमान है। उसके चारों ओर गट्टा बना हुआ एवं खुली जगह है जो आज भी वहां की नगरपालिका में महर्षि ऋषि दधीची के नाम दर्ज है।