॥भगवती दधिमथी के चमत्कार॥

सन् १२३१ में विदेशी क्रूर धर्मान्ध आक्रमणकारी मोहम्मद गजनवी भारत में मंदिर ध्वंस करने के अपने अभियान के अन्तर्गत गोठ-मांगलोद का मंदिर और कपालपीठ को तोड़ने आया था उस समय देवी के चमत्कार से काल भंवरों ने उसके सनिकों पर भयानक आक्रमण कर दिया। मंदिर तोड़ने में असकल होने के कारण उसने कपालपीठ पर एक शिला रखा कर उसको ढक दिया। सम्वत् १९०३ में ब्रह्मचारी बिष्णुदासजी के वहाँ पहुँचने पर उस शिला के चमत्कारिक ठंग से ५ टुकड़ों में विखंडित होने का विवरण मंदिर में लगे शीलालेख में उदघृत है।

दाधीच कुलभूषण सिद्ध ब्रह्मचारी बुठादेवल (मेवाड़) निवासी श्री बिष्णुदासजी महाराज ने कुलदेवी दाधिमयी के कपालपीठ को अपनी तपस्या स्थली बनाया। उन्होंने वहाँ अनेको गायत्री के पुरश्रचरण किये। भगवती की आज्ञा से वे उदयपुर गये। मार्ग में लकड़ी काटने वाले एक बालक को देखकर उसके उदयपुर का राणा बनने की भविष्यवाणी की। बालक ने अपनी निर्धनता की बात बताई, इस पर बह्मचारी ने कहा कि भगवती दधिमथी की कृपा से उदयपुर का राजतिलक तेरे ललाट पर ही लगेगा, तू उदरपुर जा उधर उदयपुर की राजगद्दी को लेकर दो पक्षों के बीच संघर्ष चल रहा था। प्रजा ने निर्णय किया कि ये दोनों पक्ष ही इस गद्दी के योग्य नही है। प्रातः जो भी पहला व्यक्ति जंगल में मिले उसको ही गद्दी पर बैठा दिया जाये। भगवती के चमत्कार से वही निर्धन बालक जंगल में प्रजाजनों को मिला। उसका नाम रामस्वरुपसिंह था। प्रजाजनों ने उस बालक को उदयपुर के महाराणा के रुप में राजतिलक किया, जिसका नाम स्वरुपसिंह रखा गया। कालांतर में भगवती ने महाराणा को अनेकों परचे दिये, उनको पुत्र की प्राप्ति भी हुई।

मंदिर में लगे सम्वत् १९०८ के शिलालेख के अनुसार बह्मचारी विष्णुदासजी महाराज की आज्ञा से महाराणा स्वरुपसिंह जी द्वारा बह्मचारीजी के पुत्र के निदेशन में मंदिर के गर्भगृह एवं सभामण्डप के बाहर के चौक, तिबारियों, प्रकोष्ठ दरवाजे, चारदिवारी, यात्री निवास, बावड़ी, शिवमंदिर आदि का निर्माण एवं कुण्ड का जीणोद्धार हुआ।

जोधपुर की महारानी की रोगमुक्ति भी भगवती की मनौती से चमत्कारी ढंग से हुई जिस पर जोधपुर राजवंश ने मंदिर विकास में अपना योगदान किया। राणाजी के प्रधान शेरसिंहजी, जैसलमेर के पटवा जोरावरमलजी ने भी मंदिर विकास में अपना सहयोग दिया।

मंदिर में नवरात्रियों की सप्तमी एवं अष्टमी को श्रद्धालु भक्तजनों द्वारा ‘श्री सुक्तम’ के मंत्रों से दुग्धभिषेक होता है। चाहे जितने दुध से अभिषेक किया जाये, भगवती का चमत्कार है कि वह कुंडी से बाहर कभी छलकता नही है।

कुछ वर्ष पहले इस कपालपीठ क्षेत्र में भयंकर बाढ़ से चारों ओर का क्षेत्र जलप्लावित हो गया तथा मंदिर की चारदिवारी के बाहर अथाह जल था। किन्तु गर्भगृह में बाढ़ में पुजारीगण लोहे के कढ़ाव को नाव की तरह उपयोग में लेते हुए भगवती की नियमित पूजा अर्चना के लिए मंदिर तक पहुँचते थे। यह भी एक कौतुहलपूर्ण चमत्कार है। इस प्रकार भगवती के अनेको चमत्कार लोगों ने प्रत्यक्ष देखे हैं।

भगवती दधिमथी के सम्बन्ध में आम मान्यता है कि जो जहाँ दुग्धाभिषेक करवाता है, घी की अखण्ड जोत (दीपक) स्थापित करता है, मंदिर में अपनी मनौती के लिये नारियल, ध्वजा और चुनड़ी अर्पण करता है, चूरमें का नैवेद्य चढ़ाता है, उसकी मनोकामना निश्चित पूर्ण होती है। दाधीच समाज के लोग तो अनिवार्य रुप से यहाँ आते ही हैं, वरन् इस क्षेत्र के तथा दूर-दूर के अन्य समाज एवं सम्प्रदाय के श्रद्धालु भी अपनी मनोकामना की पूर्ति हेतु देवी के दर्शनार्थ बारह मास आते रहते है तथा भगवती को अपनी कुलदेवी के रुप में पूजते हैं। 

दोनों नवरात्रियों में विशाल मेले भरते है। इस अवसर का तो आनन्द ही निराला है। दाधीच समाज के लोग तो सप्तमी के पूर्व ही आ जाते है दूर-दूर से आये बधु आपसी परिचय, सगाई, सम्बधों की चर्चाओं के साथ-साथ समाज एवं मंदिर विकास की योजना बनाते हैं। अनेकों तपस्वी पूरी नवरात्री यहाँ उपासना करते है। मंदिर एवं मेले की सारी व्यवस्था दाधीच समाज की संस्थाओं द्वारा की जाती है। भगवती की पूजा अर्चना पाराशर समाज के पुजारी मनोयोग से करते है। यह स्थान नागौर जिले में जायल तहसील के अन्तर्गत गोठ-मांगलोद माताजी के नाम से विख्यात है। यहाँ पहुँचने के लिए निकटस्थ रेलवे स्टेशन नागौर डीडवाना ओर डेगाना है। यहा से माताजी एवं जायल के लिए बसें मिलती है। यह जायल से १० कि.मी. पर है। धार्मिक, सांस्कृतिक एवं पुरातत्व की अमूल्य धरोडर कपालपीठ माताजी के क्षेत्र के विकास हेतु राज्य शासन का ध्यान भी आकर्षित हुआ है, शासन से अपेक्षा है कि परिवहन, पुरातत्व, पर्यटन, वनरोपणी, जलमल बोर्ड आदि कार्य जन-भावनओं के सम्मान हेतु तत्परता से सम्पन्न करायी जावें। देश का दाधीच समाज एवं इस क्षेत्र के श्रद्धालु नागरिक भी इसके विकास हेतु सक्रिय हुए हैं जिसके परिणामस्वरुप मंदिर में नव-निर्माण हुआ है, भव्यता आयी है और सुविधाएं भी बढ़ी है, लेकिन यह तो अभी आरम्भ ही है। अभी बहुत कुछ होना शेष है। श्रद्धालुओं से अपेक्षा है कि वे इस शक्तिपीठ के भौतिक विकास के साथ ही आध्यात्मिक एवं पुरातत्व केन्द्र के रुप में भी इसके विकास की दिशा में प्रगतिशील हों। (इस लेख में संदर्भ श्रीमद्भागवत, महाभारत, विराट पुराण, दधिमथी पुराण, पद्म पुराण, बह्मण्ड पुराण, एवं कल्याण आदि से लिये गये हैं।)