भगवान दधीचि आरती
आरती ऋषि मुनि ज्ञानी की, महर्षि श्री दधीचि दानी की।
विष्णु नाभि से कमल जन्मा, कमल से प्रगटे श्री ब्रह्मा।
ब्रह्मा के पुत्र अथर्वा हुए, अथर्वा मुनि के आप भये।
भादो अष्टमी जन्म लीना, दधीचि नामकरण कीन्हा।
अथर्वा तात-शांति मुनि मात-दधिमथी भ्रात,
योगी यति तपसी ध्यानी की ।। 1||
शिर पर जटा मुकुट सोहे, देखकर सुरनर मुनि मोहे।
बड़े योगी बल तप धारी, भक्त शिवशंकर के भारी।
कवच नारायण प्रभु दीन्हा, तपोबल से धारण कीन्हां।
त्रिपुण्ड है भाल-रुद्रगलमाल, ज्ञान है त्रिकाल,
तत्वदर्शी मुनि ज्ञानी की ।। 2||
कठिन तप शंकर का कीन्हां, प्रसन्न हो शिव ने वर दीन्हां।
तीन वर शंकर से पाये, वज्र अस्थि मम हो जाये।
कभी न दीन हीन होऊ, किसी से मारा नहीं जाऊ।
मृत्युजंय मंत्र-संजीवनी यंत्र-काल का तंत्र,
आत्मदर्शी विज्ञानी की ।। 3 ||
चार वेदों के तुम ज्ञाता, ब्रह्म विद्या के तुम दाता।
अश्विनी कुमार वैद्य आये, इन्द्र के मन में नहीं भाये
अश्वशिर मुनि धारण कीन्हां, ब्रह्म विद्या का दान दीन्हां।
दिया उपदेश-इन्द्र का देण-मन नहीं क्लेश,
कृपा है शूलपाणी की।।4।।
दैत्य एक वृत्रासुर भारी, त्वष्ठा का सुत अत्याचारी।
इन्द्रादिक देव सभी हारे, आए मुनि के आश्रम द्वारे ।
महर्षि आप दया कीजै, कृपा कर अस्थि दान दीजै।
वृत्रासुर मरण-पकड़ लिए चरण-आए हम शरण,
परोपाकारी महादानी की ।। 5।।
दुखित हो देव नमन कीन्हां, मुनि ने भाव समझ लीन्हा।
ब्रह्म में प्राण लीन कीन्हां, देवहित अस्थिदान दीन्हा।
धन्य हो धन्य ऋषि स्वामी, आप प्रभु हो अन्तर्यामी।
वृत्रासुर मार-किया उपकार-हुई जयकार,
विनय है अज्ञानी की ॥ 6॥
मां दधिमथी की आरती
श्री कोटी चन्द्र भालिनी कपाल भाल धारणी,
कपूर गौर रुपणी अपार पाप त्यारणी।
अनाद्य रूप ईश्वरी, मुरज्य ब्रह्म दायनी,
विरंच विष्णु ईश्वरी, कला कलाप शंकरी।
आनन्द कोटी कालिका, कलाय नन्दी मालीका,
तू ही सुबुद्धि बर्द्धनी, तू ही कुबुद्धी खंडनी।
सुबुद्धी सिद्धि दायनी, नमामी सिंह वाहिनी,
श्री विष्णु दास चरण शरण राखो हंस बाहिनी ।
श्री दधिमथी माताजी की शयन आरती (पोढ़णो)
पोढ़ो-पोढ़ो दधिमथी माई, अखियों में नींद छाई।
कंचन मणि का पलंग सजत है, रेशम बाण बनाई।
जिस पर गलीचा, सिरख पथरना पुष्पन सेज बिछाई।
अब पोढ़न का वक्त हुआ है, मुख उबासी आई।
दूध पान कर शयन किजीये, आध शक्ति महामाई।
आदि अनादि तू ही जग जननी, गति तेरी लखियन जाई।
सब सेवक मिलकर सेज बिछाई, जिसमें अत्रदान छिड़वाई।
कहे गणेश कर जोड़ भगवती, हित चित में यश गायी।
पोढ़ो – पोढ़ो दधिमथी माई, अँखियों में नींद आई।
श्रीकपाल कुण्ड पर सवारी की आरती
जय जय जनक सुनन्दिनी, हरि वन्दिनी हे।
दुष्ट निकन्दिनी मात, जय जय विष्णु प्रिये।
सकल मनोरथ दायनी, जग सोहिनी हे।
पशुपति मोहिनी मात, जय जय विष्णु प्रिये।
विकट निशाचर कुंथिनी, दधिमंथिनी हे।
त्रिभुवन ग्रंथिनी मात, जय जय विष्णु प्रिये। दिवानाथ सम भासिनी, मुख हासिनी हे।
मरुधर वासिनी मात, जय जय विष्णु प्रिये।
जगदंबे जय कारिणी, खल हारिणी हे। मृगरिपुचारिनी मात, जय जय विष्णु प्रिये।
पिपलाद मुनि पालिनी, वपु शालिनी हे।
खल खलदायनी मात जय जय विष्णु प्रिय।
तेज – विजित सोदामिनी, हरि भामिनी हे।
अहि गज ग्रामिनी मात, जय जय विष्णु प्रिये।
घरणीघर सुसहायिनी, श्रुति गायिनी हे।
वांछित दायिनी मात जय जय विष्णु प्रिये।
॥ अथ दधिमथी स्त्रोतम् ॥
(तर्ज : श्री शिवमहिम्न स्त्रोत)
सदाम्बा स्त्वीडयेड्ये दधिमथि मतिर्मे त्वयि मनो।
गिरा त्वद्दत्तैषा जननि जनजैत्री तव नुतौ॥
शिरस्त्वत्पादाब्ज प्रणतिषु शरीञ्च यजने।
त्वमेवाद्याशक्ति र्जयसि जगदीशादिषु गता॥१॥
अर्थ – स्तुति करने योग्य हे माँ दधिमथी आप में ही हमारी बुद्धि और मन सदा लगा रहे। हे माता आपके द्वारा दी गई यह वाणी आपकी ही स्तुति में लगी रहे और सब को जीतने वाली बने। हमारा मस्तक आपके चरणकमलों में सदा प्रणाम करता रहे और शरीर सदैव आपकी पूजा अर्चना में रत रहे। आप ही आदि शक्ति हो जो सर्व देवताओं में व्याप्त हो। आपकी सदा जय जयकार होती रहे।
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जगन्मातर्मन्ये जनयसि जगत्पासि सकलं।
हरस्यैतच्चित्रं नहि निरिवलवन्धे त्वयि शिवे॥
यतोऽनन्तासि त्वं भवभयहराऽ जामरवरा।
नमामि त्वा नित्यं दधिमथी सुतुष्टा भव शुभे॥१॥
अर्थ – हे जग की माता दथिमथी आप ही जग को उत्पन्न करने वाली, पालन करने वाली और संहार करने वाली हैं। सभी के द्वारा वंदनीय, हे कल्याणी मां दाधिमथी, आपके उपरोक्त कार्य आश्चर्यजनक नहीं हैं क्योंकि आप अनंत और अजन्मा तथा देवताओं में श्रेष्ठ हो। हे माता आपको मैं नित्य प्रणाम करता हूँ। अतः आप मुझ पर कृपा करें।
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असारे संसारे यदि किमपि सारं त्वमसि तत्।
त्वया व्याप्तं मातर्जगदिद मशेषं परपरे॥
विना शक्तिं शक्ता विधिहरिहरा नासुरसुराः।
रमरामि त्वा नित्यं दधिमथी सुतुष्टा भव शुभे॥३॥
अर्थ – हे माता इस सार रहित संसार में यदि सार है तो आप ही सार हैं। आपके ही द्वारा यह सम्पूर्ण जगत व्याप्त है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश, देवता, राक्षस सभी आपकी शक्ति के बिना समर्थ नहीं है। ऐसी हे दधिमथी मां! मैं आपका सदैव चिन्तन करता हूँ। आप मुझ पर प्रसन्न होवें।
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कुपुत्रे जातेम्बाऽवति तमनुकम्पार्द्रहृदया।
तथा मत्वा मार्येऽव शरण गतं ते शरणदे॥
त्वदन्य: कस्त्रता त्वमसि मम माता रखलु पिता।
नमामि त्वा नित्यं दधिमथी सुतुष्टा भव शुभे॥४॥
अर्थ – कपूत की भी दया से ओत प्रोत हृदयवाली माता रक्षा करती है। ऐसा समझ कर मैं भी, सबको शरण देनेवाली है माँ दधिमथी! आपकी शरण में आया हूँ। आप मेरी रक्षा करें। आपको छोड़कर दूसरा कौन हमें बचाने वाला है ? निश्चत रूप से आप ही मेरी माता और पिता दोनों हैं। हे माता मैं तुम्हे बारंबार प्रणाम करता हूँ। आप मुझ पर प्रसन्न होवें।
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स्वधा, स्वाहा, शान्ति स्त्वमसि वगला शत्रुशमनी।
धृति र्धी स्त्वं विद्या त्वमसि विधिजा बुद्धिजननी॥
क्षमोमा कौमारी त्वमसि कमला दु:खदमनी।
नमामि त्वा नित्यं दधिमथी सुतुष्टा भव शुभे॥७॥
अर्थ – हे माता आपके अनेक नाम हैं। यथा-स्वधा, स्वाहा, शांति और शत्रुओं का विनाश करने वाली बगला देवी। आप धैर्य स्वरूपा धृति, ध्यान स्वरूपा धी (बुद्धि) हो। आपही बुद्धि उत्पन्न करने वाली विद्या हो, आपही क्षमा, उमा, कौमारी और दुखों का विनाश करने वाली कमला (लक्ष्मी) स्वरूपा हो। हे माता मैं तुम्हें बारंबार प्रणाम करता हूँ। आप मुझ पर प्रसन्न होइये।
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तपत्यभ्रे भानु र्दहति च कृशानु स्तव भयात्।
विभातीन्दु श्चायं वियति भगणो वैतव भयात्॥
जलं वर्षन्त्येते जगति जलदा वाति पवन:।
स्मरामि त्वा नित्यं दधिमथी सुतुष्ठाभव शुभे॥६॥
अर्थ – हे माता आपके भय से ही आकाश में सूर्य तपता है, चन्द्रमा और तारे चमकते हैं, अग्नि जलती है, बादल वृष्टि करते हैं और वायु बहती है। मैं आपका सदा स्मरण करता हूँ। मुझ पर आप कृपा कीजिए।
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यदाऽनीशो वक्तुं भगवति गुणास्तेऽपरिमितान्।
सलज्जो भूच्छषो दशशतमुखो धस्सुसदन:॥
कथं शक्तोऽरम्याद्ये विगत रदन स्त्वेकवदनः।
स्मरामि त्वा नित्यं दधिमथी सुतुष्टा भव शुभे॥७॥
अर्थ – हे माता आपके असंख्य गुणों का वर्णन पाताल निवासी शेषनाग भी अपने हजार मुखों से करने में असमर्थ होकर लज्जित हो गये, तो हे आदिशक्ति टूटे दांतो वाला व एक मुंहवाला मैं तेरे गुणगानकरने में कैसे समर्थ हो सकता हूँ। मैं तो केवल आपका सदैव स्मरण करता हूँ, आप मुझ पर संतुष्ट रहने की कृपा करें।
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त्वया सर्वं दत्तं ननु किमपि नेच्छाम्य रिवलदे।
तथापि त्वां याचे शृणु ममहियांचे सुवरदे॥
अनन्या त्वद्भक्ति भवतु परलोके शुभगतिः।
स्मरामि त्वा नित्यं दधिमथी सुतुष्टाभव शुभे॥८॥
अर्थ – हे दधिमथीमाता, यद्यपि आपने मुझे सब कुछ इतना दिया है कि मैं अब कुछ भी न चाहते हुए भी आपसे दो याचनायें करता हूँ। हे सुन्दर वर देने वाली माता मेरी दो याचनायें सुनो पहली तो इस जन्म में आपके प्रति मेरे मन में अनन्य भक्ति होवे और दूसरी परलोक में मुझे सद्गति प्राप्त हो। इसलिये हे दधिमथी मां!मैं आपका सदा स्मरण करता हूँ। मुझ पर आप प्रसन्न होइये।
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ऋणार्ता रोगोर्तो रिपुनृपभयार्तो गतधनः ।
सुतार्त: शोकार्त स्वजनविरहार्ता हतजन:॥
शुचि र्भूत्वा भक्त्या प्रवठति पुमान् यः स्तवमिमम्।
सुरवी सद्य: श्रीमान् भवति विपुलायु: कविवर॥९॥
अर्थ – ऋण के बोझ और रोग से पीड़ति, शत्रु व राजा के भय से पीड़ीत, शत्रु व राजा के भय से आतंकित, जिसका स्वयं का धन नष्ट हो चुका हो, पुत्र के अभाव तथा अपने परिवार के सदस्यों के निधन से व्याकुल मनुष्य भी यदि पवित्र होकर दधिमथी देवी के इस स्तोत्र का भक्ति पूर्वक अच्छी तरह से पठन करता है तो वह शीघ्र ही सुखी धनवान, दीर्घायु तथा श्रेष्ठ कवि (बुद्धिमान) होता है।
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सदा प्रज्ञा हर्षे श्रुति सदवबोध प्रजनिते।
हृदा सन्तुष्टेनाऽरिवलसुखयुतो यो हि रमते॥
असौ नामार्थोस्तीदमिति शिवदं यस्य कविना।
कृतं तेन स्तोत्रं जनहितकृते ज्ञेय मनघा: ॥१०॥
अर्थ – मनुष्य का परम पुरुषार्थ इसी में है कि वह सदा प्रसन्न हृदय से सम्पूर्ण आनंदयुक्त शास्त्रों के परम ज्ञान से उत्पन्न अलौकिक आनंद में रमण करता रहे। इसी प्रयोजन हेतु कवि ज्ञारसराम ने इस मंगलदायक दधिमथी स्तोत्र की रचना की है। है सज्जनों इसे (स्तोत्र को) जन-कल्याण के ही लिये समझें।
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वसु सप्ताक चन्द्रेऽब्दे । शुचा वाद्यतिथौ सिते।
इदं ज्ञारसरामेण दधिमथ्यै समर्पितम्॥११॥
अर्थ- संवत १९७८ के आषाढ महिने के शुल्क पक्ष के प्रतिपदा तिथी को ज्ञारसराम द्वारा यह स्तोत्र भगवती दधिमथी के चरण कमलों में समर्पित किया गया।
॥ इति श्री ज्ञारसराम रचितं श्रीदधिमथी स्त्रोत्रम् समाप्तम्॥