दधिमती माता मंदिर :
भारतीय स्थापत्यकला एवं मूर्तिकला का गौरव, प्रतिहारकालीन मंदिर स्थापत्य मूर्तिकला का सुन्दर उदाहरण, प्राचीन भारतीय वास्तुकला की उत्कृष्ट कला का प्रतिनिधित्व करता दाधीच समाज की कुलदेवी दधिमती माता का मंदिर राजस्थान के नागौर जिले के जायल कस्बे के पास गोठ मांगलोद गांव में स्थित है। इस मंदिर की गणना उत्तर भारत के प्राचीन मंदिरों में की जाती है, महामारू शैली का श्वेत पाषाण से निर्मित शिखरबद्ध यह मंदिर पूर्वाभिमुखी है। डा. राघवेन्द्र सिंह मनोहर के अनुसार-“वेदी की सादगी जंघा भाग की रथिकाओं में देवी देवताओं की मूर्तियाँ, मध्य भाग में रामायण दृश्यावली एवं शिखर प्रतिहारकालीन परम्परा के अनुरूप है। चार बड़े चौक वाला यह मंदिर भव्य व विशाल है।
मंदिर का जंघा भाग पंचरथ है। जिसकी मध्यवर्ती प्रधान ताक में पश्चिम की ओर आसनस्थ चार भुजाओं वाली दुर्गा, उतर की ओर तपस्यारत चार भुजाओं वाली पार्वती तथा दक्षिण की ओर आसनस्थ आठ भुजाओं वाली गणपति प्रतिमा विद्यमान है। इसके समीप स्थानक दिकपाल वाहनों सहित अंकित है यथा मेषवाहना अग्नि, महिषवाहना यम, नरवाहना नैऋत्य तथा मकरवाहना वरुण।”
मंदिर में रामायण की घटनाओं का चित्रों के माध्यम से मनोहारी चित्रण किया है। डा. राघवेन्द्र सिंह मनोहर के अनुसार-“चित्रों में राम का चित्रण सामान्य पुरुष रूप में, ब्रह्मचारी वेश में, जटामुकुट धारण किये, हाथ में धनुष, पीठ पर तरकश बांधे प्रत्यालीढ़ मुद्रा में किया गया है, अवतार के दिव्य रूप में नहीं। नाटकीयता को महत्त्व देने के लिए उन महत्त्वपूर्ण घटनाओं को चुना गया है, जो आश्चर्य एवं विस्मय का भाव उत्पन्न करती है। हनुमान का चित्र का वानर के रूप में किया गया है। इन अर्धचित्रों से यह सिद्ध होता है कि राजस्थान के शिल्पियों में बाल्मीकि रामायण लोकप्रिय थी तथा भारत का यह भू-भाग रामायण के कथानक से जुड़ा हुआ था, जिसका उल्लेख रामायण के इस श्लोक में हुआ है-
आदौ रामतापोवनादिगमनं हत्या मृगं कांचनम।
वैदेहि हरणं जटायुमरणं सुग्रीव संभाषणम।।
वाली निर्दलनं समुद्रतरणं लंकापुरी दाहनम।
पश्चाद्रावण कुम्भकर्णहननं एतद्धि रामायणम ।।”
देवी के इस मंदिर में रामायण के इन चित्रों में राम, लक्ष्मण, सीता वन गमन से शुरू होकर, मारीच वध, कुंभकर्ण, रावण वध, वानरों द्वारा समुद्र पर सेतु बांधने आदि कई घटनाओं के सुन्दर चित्रों का समायोजन किया गया है जो दर्शनीय है।
मंदिर निर्माण की प्राचीनता के बारे रामकरण आसोपा ने इसे गुप्तकालीन मानते हुए 608 ई. में निर्माण माना है, जबकि डा. राघवेन्द्र सिंह मनोहर आदि इतिहासकार इस मंदिर का निर्माण प्रतिहार नरेश भोजदेव प्रथम (836-892 ई.) के समकालीन मानते है।
राजस्थान के प्रसिद्ध इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा के अनुसार ‘‘इस मंदिर के आस-पास का प्रदेश प्राचीनकाल में दधिमती (दाहिमा) क्षेत्र कहलाता था। उस क्षेत्र से निकले हुए विभिन्न जातियों के लोग, यथा ब्राह्मण, राजपूत, जाट आदि दाहिमे ब्राह्मण, दाहिमे राजपूत, दाहिमे जाट कहलाये, जैसे कि श्रीमाल (भीलमाल) नगर के नाम से श्रीमाली ब्राह्मण, श्री महाजन आदि।’’
दाधीच ब्राह्मण, जाट व अन्य जातियों के अलावा दाहिमा व पुण्डीर राजपूत दधिमती माता को अपनी कुलदेवी मानते हुए इसकी उपासना करते है। चूँकि दाहिमा राजपूत इसी क्षेत्र से निकले होने के कारण दाहिमा कहलाये। हालाँकि इस क्षेत्र में दाहिमा राजपूतों का कभी कोई बड़ा राज्य प्राचीनकाल में भी नहीं रहा। वे पृथ्वीराज चौहान तृतीय के सामंतों में थे और पृथ्वीराज के दरबार में दाहिमा राजपूतों का बड़ा महत्व व प्रभाव था। कुं. देवीसिंह मण्डावा के अनुसार ‘‘कैमास दाहिमा पृथ्वीराज के पिता सोमेश्वर के समय से ही चौहान साम्राज्य का प्रधानमंत्री रहा था। सोमेश्वर ने उसे नागौर का क्षेत्र जागीर में दिया था।’’ सोमेश्वर की मृत्यु के समय पृथ्वीराज बालक थे, अतः उनकी माता कर्पूरी देवी राज्य का प्रशासन देखती थी, जिसने भी कैमास दाहिमा पर भरोसा करते हुए उसे प्रधानमंत्री रखा। कैमास दाहिमा ने गौरी का घग्घर नदी के पास मुकाबला किया था, जिसमें वह घायल हुआ। उसकी मृत्यु के बाद पृथ्वीराज ने उसके पुत्र को प्रधानमंत्री बनाया और हांसी की जागीर दी थी। दाहिमा राजपूतों के अलावा पुण्डीर राजपूत भी दधिमता माता को कुलदेवी मानते है और माता की पूजा-आराधना-उपासना करते है।अन्य मंदिरों की भांति माता के इस मंदिर से भी चमत्कार की कई दंतकथाएँ जुड़ी है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार विकटासुर नाम का दैत्य संसार के समस्त पदार्थों का सारतत्व चुराकर दधिसागर में जा छुपा था। तब देवताओं की प्रार्थना पर स्वयं आदिशक्ति ने अवतरित होकर उस दैत्य का वध किया और सब पदार्थ पुनः सत्वयुक्त हुए। दधिसागर को मथने के कारण देवी का नाम दधिमती पड़ा। अन्य जनश्रुतियों के अनुसार कपालपीठ कहलाने वाला माता का यह मंदिर स्वतः भूगर्भ से प्रकट हुआ है। तो एक अन्य जनश्रुति के अनुसार प्राचीनकाल में राजा मान्धाता द्वारा माघ शुक्ल सप्तमी को किये गए एक यज्ञ के समय यज्ञकुण्ड से पैदा होने की किवदंती प्रचलित है।
वर्तमान में मंदिर की सम्पूर्ण व्यवस्था मंदिर प्रन्यास व अखिल भारतीय दाधीच ब्राह्मण महासभा द्वारा की जाती है। दाधीच ब्राह्मण महासभा द्वारा ही मंदिर का नवीनीकरण एवं जीर्णोद्धार किया गया व बरामदों युक्त अनेक कमरों का निर्माण कराया गया है। चैत्र और आश्विन के नवरात्रों में यहाँ मेलों का आयोजन होता है, जिनमें बड़ी संख्या में माता के भक्त, श्रद्धालु दर्शनार्थ यहाँ आते है।
कैसै पहुंचे?
दधिमती मंदिर तक पहुंचने के लिए विभिन्न स्थानों से रेल, बस, टैक्सी आदि से आसानी से पहुंचा जा सकता, मंदिर पक्की सड़क द्वारा नागौर एवं जायल से जुङा हुआ है इस के नजदीकी रेलवे स्टेशन नागौर (40 किमी) डीडवाना (60 किमी) डेगाना (50 किमी) है तथा नजदीकी हवाई अड्डा जोधपुर 175 किमी , जयपुर 200 किमी है.
प्रमुख शहरों से सङक मार्ग द्वारा दूरी
आप निम्न सङक मार्गों द्वारा भी दधिमती माताजी मंदिर पहुँच सकते है.
1 जयपुर-जोबनेर-नावां-कुचामन -छोटी खाटू-तरनऊ
2 जोधपुर-खींवसर-नागौर-रोल
3 जोधपुर-भोपालगढ़-आसोप-शंखवास-मुण्डवा-रोल
4 बीकानेर-नोखा-नागौर-रोल
5 दिल्ली-बहादुरगढ़-झज्जर-लोहारू-झुन्झुनू-मुकुंदगढ़ लक्ष्मणगढ़-सालासर-डीडवाना-जायल
6 खाटूश्यामजी-दांता-खुङ-लोसल-डीडवाना-जायल
7 सालासर-गनेङी-डीडवाना-जायल
9 अजमेर-पुष्कर-थांवला-भैरूंदा-डेगाना-सांजू-तरनऊ
10 कोटा-बूंदी-देवली-केकङी- नसीराबाद-अजमेर-डेगाना
11 उदयपुर-नाथद्वारा-राजसमन्द-देवघर-ब्यावर-मेङता सांजू
॥ मंदिर का पुरातात्विक महत्व॥
मंदिर का र्जीणोद्धार एवं विस्तार मंदिर से प्राप्त एक शिलालेख के आधार पर गुप्त सम्वत् २८९ विक्रम सम्वत् ६०८ में चौदह दाधीच ब्राह्मणों द्वारा २०२४ तत्कालीन स्वर्ण मुद्राओं से किया गया था इसका गर्भगृह एवं सभा मण्डप ३८ स्तम्भों पर निर्मित है, जिसमें एक अधर स्तम्भ भगवती का चमत्कार ही है। इस मंदिर में उपलब्ध हुए शिलालेखों के आधार पर यह उतर भारत के प्राचीनतम मंदिरों मे से है। पुरातत्व गवेषणा के अनुसार ऐतिहासिक एवं पुरातत्ववेताओं ने इस मंदिर को दो हजार बर्ष पुरातन माना है। मंदिर में प्राप्त शिलालेख का विवरण इपेग्राकी आँफ इंडिका पार्ट ३ में लिखा है, जो भारत का प्रमुख पुरातत्व संग्राहालयों मे उपलब्ध है। मंदिर में सम्वत् ४८ का एक देव प्रतिमा पर लेख भी विद्यामान है। पुराणों में इसे कुशा क्षेत्र कहा है तथा इस क्षेत्र में भगवती दाधिमयी की असीम कृपा से जिप्सम खनिज का प्रचूर भण्डार है।
॥ कपालपीठ का प्राकदय एवं राजा मान्धाता का यज्ञ॥
दक्ष प्रजापति के यज्ञ में अपने पति का अपमान एवं अपने पिता दक्ष द्वारा शिवनिन्दा की ज्वाला से पीड़ित सती ने शरीर यज्ञ कुण्ड में प्रवेश किया। तब आशुतोष शंकर ने सती के शव को अपने कंधे पर रखकर भ्रमण किया। जहाँ-जहाँ सती के शरीर के अवशेष गिरे वे स्थान पवित्र शक्तिपीठ कहलाये। भगवती सती का कपाल पुष्कर क्षेत्र से ३२ कोस उत्तर में गोठ-मांगलोद के दो गाँवो के बीच गिरा जो कपाल सिद्धपीठ के नाम से प्रसिद्ध है।
त्रेता युग में सूर्यवंशी अयोध्यापति राजा मान्धाता का पुराण प्रसिद्ध देवेशी (दधिमथी) यज्ञ महर्षि वशिष्ठ की आज्ञा से इसी कपालपीठ क्षेत्र में हुआ। उसके आचार्य महर्षि पप्पिलाद के १४४ पौत्र थे। माघ शुक्ला सप्तमी को पूर्णाहुति के अवसर पर देवी दधिमथी का प्राकद्य हुआ। देवी ने यजमान एवं आचायों को आशिर्वाद प्रदान करते हुए राजा मान्धता को कपालपीठ पर मन्दिर निर्माण का आदेश दिया। तत्काल यज्ञकुण्ड को जलकुण्ड में परिवर्तित करते हुए भगवती महामाया ने आशीर्वाद दिया कि इस जलकुण्ड में त्रिवेणी (गंगा, जमुना और सरस्वती) का निवास रहेगा। इसमें स्नान करने एवं कपालपीठ का दर्शन पूजन करने वाले सभी पापो से मुक्त होंगे। दाधीच वंश की कुलदेवी होने के नाते मेरी आराधना करने पर दाधीच कुल बुद्धिमान, यशस्वी एवं कुलवंत होंगे। मैं उनकी सदैव रक्षा करुंगी। जो भी व्यक्ति मेरी मनौती करेगा उसकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण हौंगी। राजा मान्धता ने कपालपीठ पर मन्दिर का निर्माण करवाया तब से वह कपालपीठ एक पवित्र तीर्थस्थल माना जाता है।
श्रुतियों के अनुसार राजा मान्धता द्वारा निर्मित यह मन्दिर अनेक वषों तक गुप्त रहा। बाद में एक दिन इसी स्थान पर गाय चरा रहे ग्वाले को आकाशवाणी से महामाया दधिमथी ने संकेत दिया कि मैं भूमि से पुनः प्रकट हो रही हूँ| अगर गायें भड़क जाये तो भयभीत मत होना । जब देवी प्रकट हो रही थी उसी समय सिंह की गर्जना सुनकर गायें भड़क उठी। ग्वाला देवी की बात भूल कर चिल्ला उठा जिसके फलस्वरुप देवी का पूरा स्चरुप न निकलकर मात्र कपाल का ही प्राकट्य हुआ।