इंदौर (नईदुनिया रिपोर्टर)। Padmashree Award 10 बरस की उम्र से कथक साधना शुरू कर दी थी। उम्र के 81वें वर्ष में पद्मश्री पुरस्कारों की सूची में नाम देखकर लगता है कि 71 साल की साधना सफल हो गई। हालांकि कुछ शुभचिंतक मानते हैं कि मुझे ये पुरस्कार पहले ही मिल जाना था लेकिन मेरा मानना है कि सरकारी कामकाज तय प्रक्रिया के हिसाब से होते हैं ऐसे में कब, किसे, किस आधार पर पद्म पुरस्कार से नवाजा जाएगा इसका फैसला बहुत गहन विचार-विमर्श के बाद होता है और यही सही है।

 

‘पहलवान का बेटा नचनिया”

ये कहना है देश के सुविख्यात कथक नृत्यगुरु डॉ. पुरूषोत्तम (अर्थात पुरु) दाधीच का। जिन्हें पद्मश्री पुरस्कार प्रदान किए जाने की घोषणा शनिवार को की गई है। वो कहते हैं कि पिता पहलवान थे और मैं कथक डांसर। इसलिए कई बार लोग कहते थे कि ‘पहलवान का बेटा नचनिया”। जिसे सुनकर मुझसे कहीं ज्यादा दुख शायद पिताजी को होता होगा। लेकिन पद्मश्री की घोषणा के बाद उनकी आत्मा को भी शांति मिलेगी। उन्हें फख्र हो रहा होगा कि बेटे ने उनका नाम रोशन किया है।

करना पड़ा कड़े विरोध का सामना

जब मैंने नृत्य सीखना शुरू किया उस वक्त बहुत ज्यादा विरोध का सामना करना पड़ा। क्योंकि तब खासतौर पर पुरुषों के लिए नाचना-गाना खराब समझा जाता था। परंपराओं का कड़ाई से पालन करने वाले पिताजी ने साफ-साफ कह दिया था कि अगर तू नाचना-गाना करेगा तो पांव तोड़ दूंगा। ऐसे में ‘नचनिया” से ‘नृत्यगुरु” बनने का सात दशक लंबा सफर आसान नहीं था। जब मैंने पं. दुर्गाप्रसादजी से कथक सीखना उस वक्त शुरू किया जब मालवा में शास्त्रीय नृत्य की जड़ें नहीं जमी थी। उस समय हमें लोगों को ये समझाना होता था कि जैसे पक्का (शास्त्रीय) गाना होता है वैसे ही पक्का नृत्य भी होता है।

 

अप्रचलित रागों और तालों का ज्ञान जरूरी

पद्मश्री के पहले डॉ. दाधीच को पिछले ही साल ‘संगीत नाटक अकादमी” द्वारा अकादमी अवार्ड से भी अलंकृत किया जा चुका है। वो कहते हैं कि हमारे पूर्ववर्ती नृत्य-गुरुओं ने संगीत के कुछ कठिन रागों और तालों को साइड में रख दिया कि और वो चलन से बाहर हो गए। मैंने उनका रसास्वादन किया है, इसलिए उन प्रचलित रागों को नई पीढ़ी तक पहुंचाने के काम पर सबसे ज्यादा ध्यान दे रहा हूं। जैसे छंदों के बिना कविता अधूरी है वैसे ही अप्रचलित तालों के बिना संगीत ही अधूरा है।

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